वाराणसी (काशीवार्ता)। विद्या एवं जैन जगत के वरिष्ठ मनीषी प्रो.डॉ.फूलचन्द्र जैन प्रेमी श्रुत साधना की एक अनुकरणीय मिसाल हैं। जिनका पूरा जीवन मात्र भारतीय प्राचीन विद्याओं, भाषाओं, धर्मों, दर्शनों और संस्कृतियों को संरक्षित और संवर्धित करने में गुजरा। 76 वर्ष के पड़ाव में भी युवाओं से भी ज्यादा जोश, लगन और पूरे तन-मन से अपने मिशन में निरंतर लगे हुए हैं। संस्कृत-प्राकृत भाषाओं, भारतीय दर्शन और श्रमण संस्कृति की विधा में पिछले पचास वर्षों से निष्काम साधना करने और अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य तथा शिष्यों को इन्हीं विद्याओं में परंपरागत रूप से लगा कर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
प्रो.प्रेमी काशी की पाण्डित्य परंपरा के ऐसे व्यक्तित्व के धनी हैं, जो अपने सौम्य स्वभाव, मधुर वाणी, व विनम्रता के कारण सभी के ह्रदय में विद्यमान रहते हैं। श्री प्रेमी ने प्राच्य भारतीय संस्कृति, इतिहास, जैनधर्म-दर्शन, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य क्षेत्र में आपने अप्रतिम कार्य किया है। इनकी सेवाओं को देखते हुए राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित भी किया जा चुका है। वर्तमान में श्रीनेमी स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के अधिष्ठाता तथा तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय मुरादाबाद के एमरेटस प्रोफेसर के रूप में सेवा दे रहे हैं। नरिया स्थित श्री गणेशवर्णी शोध संस्थान के उपाध्यक्ष, पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध संस्थान की विद्या परिषद के सदस्य होने के साथ साथ अनेक विश्वविद्यालयों एवं अकादमिक और सामाजिक संस्थानों की अनेक समितियों में आपकी सक्रिय भूमिका रहती है। श्रीनेमी मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संस्कृत परिषद के सदस्य रह चुके हैं तथा मथुरा से प्रकाशित प्राचीन पाक्षिक पत्रिका ‘जैन सन्देश’ के मानद सम्पादक भी हैं। राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, संस्कृत भारती, क्रिश्चियन सोसाइटी, बुद्ध सोसाइटी, जैन सोसाइटी आदि अनेक सामाजिक संगठनों द्वारा आयोजित सर्वधर्म समन्वय एवं अन्य कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभाई है।
शोध एवं समसामयिक आलेख का प्रकाशन
श्रीनेमी ने प्राकृत, संस्कृत भाषा एवं साहित्य और जैनधर्म दर्शन विषयक चार सौ से अधिक शोध एवं समसामयिक आलेख लिखे हैं। जिनमे मुख्यतः मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, लाडनूं के जैनमंदिर का कला वैभव, जैनधर्म में श्रमणसंघ, जैनसाधना पद्धति में तप, प्राकृत भाषा विमर्श, श्रमण संस्कृति एवं वैदिक व्रात्य, काशी की जैन पांडित्य परंपरा, मूलाचार भाषा वचनिका, प्रवचन परीक्षा, तीर्थंकर पार्श्वनाथ, आदिपुराण परिशीलन, आत्मप्रबोध, आत्मानुशासन, संस्कृत वाड्मय का बृहद् इतिहास, बीसवीं सदी के जैन मनीषियों का अवदान, आवश्यक निर्युक्ति, मथुरा का जैन सांस्कृतिक पुरा वैभव, जैन विद्या के विविध आयाम, स्याद्वाद महाविद्यालय शताब्दी स्मारिका, ऋषभ सौरभ उच्च, अभिनन्दन ग्रन्थ प्रमुख हैं।
पुरस्कार एवं सम्मान
समाज द्वारा ‘जैनरत्न’ की उपाधि से विभूषित प्रो.प्रेमी जी को उनकी सेवाओं के लिए समाज संस्था और सरकार सभी ने सम्मानित एवं पुरस्कृत किया है। जिसमे प्रमुख सम्मान और पुरस्कार श्री चांदमल पाण्ड्या पुरस्कार (1981), महावीर पुरस्कार (1988), चम्पालाल स्मृति साहित्य पुरस्कार, विशिष्ट पुरस्कार उ.प्र.संस्कृत संस्थान लखनऊ (1998), श्रुतसंवर्धन पुरस्कार (1998), गोम्मटेश्वर विद्यापीठ पुरस्कार (2000), आचार्य ज्ञानसागर पुरस्कार (2005), अहिंसा इण्टरनेशनल एवार्ड (2009), डॉ.पन्नालाल साहित्याचार्य पुरस्कार (2009), अ.भा.जैनविद्वत्सम्मेन संयोजकीय सम्मान (2006), जैन आगम मनीषा सम्मान, जैन विश्वभारती, लाडनूं (2013), राष्ट्रपति सम्मान(2018), महावीर पुरस्कार (2019), ऋषभदेव पुरस्कार (2023) प्रमुख हैं।