वाराणसी। दीपावली का त्योहार नजदीक आते ही वाराणसी की गलियों में रौनक लौट आई है। हर गली, हर नुक्कड़ पर दीपों की झिलमिलाहट और पूजा की तैयारियों की गूंज सुनाई देने लगी है। इसी बीच शहर के फुलवरिया और अन्य कुम्हार बस्तियों में एक अलग ही दृश्य देखने को मिलता है, जहां भगवान गणेश और माता लक्ष्मी की मूर्तियों को अंतिम रूप देने में कारीगर दिन-रात जुटे हैं। मिट्टी की खुशबू, रंगों की छटा और कुम्हारों के हाथों की लय मिलकर एक ऐसी दिव्य सृष्टि रचते हैं जो हर घर में सुख-समृद्धि का प्रतीक बनती है।
कला और परंपरा से जुड़ा जीवन
फुलवरिया निवासी कई परिवार पीढ़ियों से मिट्टी की मूर्तियाँ बनाता आ रहा है। वे बताते हैं, “हम लोग करीब छह महीने पहले से ही दीपावली की तैयारी शुरू कर देते हैं। पहले मूर्तियाँ मिट्टी से गढ़ी जाती हैं, फिर सूखने के बाद उन पर रंग-रोगन और सजावट का काम होता है। परिवार का हर सदस्य इस काम में हिस्सा लेता है—बच्चे, महिलाएँ, सभी किसी न किसी तरह योगदान देते हैं।”
उनके घर के आँगन में कतार से रखी अधूरी मूर्तियाँ जैसे साक्षी हैं उस धैर्य और समर्पण की, जो इस परंपरा को अब तक जिंदा रखे हुए हैं। लेकिन इन खूबसूरत मूर्तियों के पीछे संघर्ष की कहानी भी छिपी है।
मिट्टी की मंहगाई और बढ़ती मुश्किलें
एक महिला कहती हैं, “अब बनारस में अच्छी मिट्टी मिलना मुश्किल हो गया है। हमें बाहर से लानी पड़ती है। एक ट्रैक्टर मिट्टी लाने में लगभग ₹4000 का खर्च आता है। ऊपर से रंग, कपड़ा, सजावट और पेंट का खर्च अलग से होता है। पहले खर्च निकल आता था, अब मुश्किल से बचत होती है।”
महंगाई ने इन कारीगरों की मेहनत को और भारी बना दिया है। रंगों से लेकर कपड़ों तक, हर चीज की कीमत दोगुनी हो चुकी है। फिर भी, त्योहारों के समय वे अपने दुख को भुलाकर पूरी लगन से मूर्तियाँ तैयार करते हैं।
इन कारीगरों के लिए यह सिर्फ काम नहीं, बल्कि विरासत है जिसे वे संजोए रखना चाहते हैं। पर हालात ऐसे हैं कि कई परिवार अब यह पेशा छोड़ने की सोच रहे हैं।
इसी क्षेत्र की एक महिला भी पिछले आठ वर्षों से मूर्ति निर्माण में लगी हैं। वे बताती हैं, “जब से ससुराल आई हूँ, यही काम कर रही हूँ। पहले बहुत अच्छा लगता था, पर अब हालत खराब हो गई है। मिट्टी, रंग और सजावट की चीजें इतनी महंगी हो गई हैं कि कभी-कभी तो लागत भी नहीं निकलती।”
वे कहती हैं कि इस काम में मेहनत बहुत है, लेकिन पहचान और समर्थन की कमी के कारण उत्साह कम हो गया है। “अगर सरकार थोड़ी मदद करे या कोई प्रशिक्षण योजना चलाए, तो हम जैसे लोगों का हौसला बढ़ेगा। आखिर हम वही मूर्तियाँ बनाते हैं, जिन्हें लोग पूजा में सबसे पहले हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं।”
मिट्टी के कलाकारों की अडिग आस्था
हालांकि संघर्ष बहुत है, फिर भी इन कुम्हारों की आस्था कम नहीं होती। दीपावली से पहले की रातों में भी वे देर तक काम करते रहते हैं। उनकी थकान से ज्यादा चमक उनके चेहरे पर होती है, क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी बनाई मूर्तियाँ किसी के घर में खुशियों का संदेश लेकर जाएँगी।
गली के एक कोने में बच्चों की टोली मूर्तियों पर सुनहरे रंग भर रही होती है, वहीं महिलाएँ फूलों और कपड़ों से उन्हें सजाती हैं। मिट्टी, रंग और श्रद्धा का यह संगम बनारस की आत्मा का हिस्सा है।
बनारस की पहचान और परंपरा
कुम्हारों की यह कला सिर्फ जीविका का साधन नहीं, बल्कि बनारस की सांस्कृतिक धरोहर है। मिट्टी की मूर्तियाँ इस शहर की परंपरा, आस्था और कारीगरी की गवाही देती हैं। हर साल जब लोग दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते हैं, तो उनके घर में केवल मूर्तियाँ नहीं, बल्कि कुम्हारों की मेहनत और आशा भी विराजती है।
सरकार और समाज से उम्मीदें
अब जरूरत है कि सरकार और समाज इन पारंपरिक कलाकारों की ओर ध्यान दें। उन्हें उचित दाम, प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध कराए जाएँ, ताकि यह कला खत्म न हो। अगर इन्हें सहयोग मिले, तो न केवल इनका जीवन सुधरेगा, बल्कि मिट्टी की यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक जिंदा रह सकेगी।
दीपावली का यह पर्व तभी पूर्ण होगा, जब उस मिट्टी की खुशबू जो लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों में बसती है, उन कुम्हारों के जीवन में भी समृद्धि की रोशनी फैलाए।